जलवायु परिवर्तन की मार से बेहाल भारतीय बीमाकर्ता कंपनियों का व्यापार
भारत के बीमा क्षेत्र पर जलवायु परिवर्तन के भौतिक जोखिम

जैसा कि हाल में जारी आईपीसीसी डब्ल्यूजी2 रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु सम्बन्धी बढ़ते खतरों का भारत के विभिन्न क्षेत्रों पर असर पड़ेगा। अगर पिछले कुछ वर्षों के दौरान उभरे हालात को एक संकेत के तौर पर देखें तो भारत के बीमा क्षेत्र को चक्रवाती तूफान और बाढ़ जैसी जलवायु से जुड़ी आपदाओं से होने वाले नुकसान के कारण बीमा दावों के बढ़ते मामलों रूपी बोझ को उठाना पड़ेगा। भारतीय बीमा नियामक प्राधिकरण आईआरडीएआई की 2020-21 की वार्षिक रिपोर्ट में यह बात कही गयी है। रिपोर्ट में चक्रवात और बाढ़ जैसी ‘‘अनेक प्राकृतिक आपदाओं’’ की बात कही गयी है लेकिन यह जलवायु सम्बन्धित विभिन्न नुकसानदेह गतिविधियों के जोखिम के आकलन पर कोई मार्गदर्शन नहीं दे पाती।
प्रभाव, अनुकूलन और जोखिमशीलता पर आईपीसीसी डब्ल्यूजी2 की नयी रिपोर्ट के मुताबिक भारत जलवायु परिवर्तन के कारण आने वाली बाढ़, गर्मी और सूखे के लिहाज से दुनिया के सबसे ज्यादा संकटग्रस्त देशों में शामिल है। भारत समुद्र के बढ़ते जलस्तर, नदियों और पिघलते ग्लेशियर की वजह से बाढ़ की अनेक घटनाओं के मुहाने पर है। वर्ष 2018 और 2019 के दौरान भारत में बाढ़ और भूस्खलन की बड़ी घटनाओं में 700 से ज्यादा लोग मारे गये और 11 अरब डॉलर की सम्पत्ति का नुकसान हुआ। भारत की सबसे बड़ी पुनर्बीमाकर्ता म्यूनिख रे भी इस बात से सहमत है कि चक्रवाती तूफान, बाढ़ और सूखा भारतीय क्षेत्र में मौसम से सम्बन्धित प्रमुख जोखिम हैं। चूंकि ये अप्रत्याशित और चरम स्थितियां हैं, इसलिये ये मौसमी घटनाएं कम्पनियों को होने वाले नुकसान की आशंका को बढ़ा रही हैं, जिससे बीमा कम्पनियों के सामने चुनौतियां भी और बढ़ गयी हैं। आमतौर पर बीमाकर्ता लम्बे समय से ‘विनाशकारी मॉडल्स’ पर निर्भर हैं, जिसमें भविष्य के जोखिमों की कीमत तय करने के लिये ऐतिहासिक नुकसान के डेटा का इस्तेमाल किया जाता है। हालांकि जलवायु की अप्रत्याशित स्थितियों की वजह से भविष्य में होने वाले नुकसान के प्रारूपीकरण को पहले से कहीं ज्यादा मुश्किल बना दिया है। जलवायु सम्बन्धी हानियों को अवशोषित करने की बीमाकर्ता की क्षमता को विह्वल करने की प्रमुख घटनाओं की क्षमता बेहद वास्तविक है। उदाहरण के तौर पर वर्ष 2018 में मर्सिड प्रॉपर्टी एण्ड कैजुअलटी कम्पनी कैलीफोर्निया में जंगल में लगी आग से हुए नुकसान की भरपाई के लिये सभी बीमा दावों का भुगतान नहीं कर सकी, नतीजतन वह दीवालिया हो गयी।
आमतौर पर बीमाकर्ता लम्बे समय से ‘विनाशकारी मॉडल्स’ पर निर्भर हैं, जिसमें भविष्य के जोखिमों की कीमत तय करने के लिये ऐतिहासिक नुकसान के डेटा का इस्तेमाल किया जाता है। हालांकि जलवायु की अप्रत्याशित स्थितियों की वजह से भविष्य में होने वाले नुकसान के प्रारूपीकरण को पहले से कहीं ज्यादा मुश्किल बना दिया है।
बढ़ते भौतिक जोखिम बाजार-आधारित जोखिम अंतरण प्रणालियों के साथ-साथ भारत के बीमाकर्ताओं के कारोबारी मॉडल्स की निहित पूर्वधारणाओं, दोनों के ही सामने चुनौती पेश करते हैं। ये चुनौतियां पुनर्मूल्य निर्धारण के जोखिम को विस्तार देती हैं, क्योंकि भारत पहले ही एशिया में सबसे कम बीमा आच्छादन वाले देशों में शुमार किया जाता है और इस मामले में वैश्विक औसत के लिहाज से भी वह और भी निचली पायदान पर है।
- वैश्विक बीमा उद्योग से प्राप्त जलवायु प्रकटीकरणों की वर्ष 2020 की समीक्षा के मुताबिक भारतीय बीमा कम्पनियां अपने वैश्विक साथियों में से सबसे खराब प्रदर्शन करने वाली कम्पनियों में शामिल हैं। जलवायु जोखिम के अपने प्रबंधन को व्यक्त करने के लिए बीमाकर्ताओं की क्षमता न केवल उनके शेयरधारकों के लिए बल्कि अर्थव्यवस्था की वित्तीय स्थिरता के लिए भी महत्वपूर्ण है। वर्ष 2021 में महाराष्ट्र में बीमा क्षेत्र सहित लघु, बड़े एवं मध्यम उद्योगों की जलवायु जोखिमशीलता आकलन सर्वे में खुलासा हुआ है कि करीब आधे उद्योग यह महसूस करते हैं कि कारोबार मॉडल और योजना का फिर से आकलन करने की जरूरत है, वहीं एक तिहाई से ज्यादा ने पूंजी को हुए नुकसान के लिये जलवायु परिवर्तन को दोषी माना। हर 10 में 6 उद्योग जलवायु से खतरे को खत्म करके एक कामयाब जोखिम-अंतरण तथा मूल्य निर्धारण प्रणाली विकसित करना चाहते हैं जो बाहरी पर्यावरण के अनुकूल हो।
हम यहां इस मुद्दे पर क्लाइमेट ट्रेंड्स द्वारा तैयार की गयी एक ब्रीफिंग और एक दस्तावेज साझा कर रहे हैं, जिसमें क्षेत्र से जुड़े विशेषज्ञों के उद्धरण भी शामिल हैं। कृपया हमें बताएं कि क्या आप इस पर कोई समाचार बनाने में दिलचस्पी रखते हैं और क्या आपको कुछ और सामग्री चाहिये।
इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकोनॉमिक रिलेशंस के विजिटिंग प्रोफेसर डॉक्टर साओन रे –
“बीमा क्षेत्र अनहोनी घटनाओं से होने वाले वित्तीय नुकसान के शमनकर्ता के रूप में काम करता है और एक वित्तीय मध्यस्थ के तौर पर यह धन को निवेश के विभिन्न रास्तों की तरफ मोड़ता है। भारत जलवायु परिवर्तन से जुड़े जिन जोखिमों का सामना कर रहा है उनमें यह क्षमता है कि वे इन दोनों अनिवार्य कार्यों से समझौता कर सकते हैं जो एक व्यापक अर्थव्यवस्था में बीमा द्वारा किये जाते हैं। भारतीय बीमा क्षेत्र विभिन्न चुनौतियों का सामना कर रहा है। जैसे कि बीमा की कम पैठ, उसके घनत्व की कम दर और ग्रामीण इलाकों में बीमाकर्ताओं की कम भागीदारी। देश में कुदरती विनाशकारी घटनाओं जैसे विशिष्ट जोखिमों के बीमे का बाजार काफी हद तक अविकसित है। उदाहरण के तौर पर भारत में बाढ़ का जोखिम पहले से कहीं ज्यादा स्पष्ट है मगर बीमा कम्पनियों ने वर्ष 2018 में केरल में आयी बाढ़ के दौरान हुए वास्तविक नुकसान के 10 प्रतिशत से भी कम हिस्से के बराबर के दावों का ही भुगतान किया। नए जोखिमों की शुरुआत के साथ नए जोखिम मूल्यांकन मॉडल पर भी विचार करने की आवश्यकता होगी ताकि इन अवसरों का सर्वोत्तम लाभ उठाया जा सके। भारत के बीमा क्षेत्र में बाजार की कम पैठ और कम घनत्व के कारण आगे बढ़ने की क्षमता है।”
रहेजा क्यूबीई जनरल इंश्योरेंस कम्पनी लिमिटेड के पूर्व प्रबंध निदेशक एवं सीईओ प्रवीण गुप्ता –
‘‘हम जलवायु परिवर्तन के बुरे दौर से गुजर रहे हैं। इसके प्रभावों को महज एक्ट ऑफ गॉड (एओजी) या नेचुरल कैटॉस्ट्रॉफी (नैट कैट) कहकर खारिज नहीं किया जा सकता। जलवायु सम्बन्धी विभिन्न चरम परिघटनाओं के दोबारा होने की अवधि लगातार कम होती जा रही है। ऐसे में जोखिम प्रबंधन, अंडरराइटिंग और मूल्य निर्धारण कार्य ठोस होने चाहिये। विशेष रूप से नाजुक भौगोलिक क्षेत्रों में एसेट बिल्डअप और इसके समुच्चय को बारीकी से देखने और प्रबंधित किए जाने की आवश्यकता है। बीमाकर्ता द्वारा ऐसी किसी भी चीज में निवेश पर से परहेज किया जाना चाहिये जिसके सामान्यत: इंसानों, जैव विविधता और पर्यावरण पर विपरीत प्रभाव पड़ते हों। जलवायु सम्बन्धी जोखिम तेजी से उभर रहे हैं और लगातार जटिल होते जा रहे हैं। पूर्वव्यापी मूल्य निर्धारण मॉडल काम नहीं करेंगे, वहीं जोखिम की मॉडलिंग को भी तेजी से करने की जरूरत है। बीमाकर्ताओं के पास अब भूमिगत कक्षों में बैठकर काम करने की आजादी नहीं है। बीमाकर्ताओं को स्कोप 1, 2, 3 उत्सर्जन के परिप्रेक्ष्य से अपने पोर्टफोलियो का मूल्यांकन करने और यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि वे नेट जीरो परिणाम के अनुरूप हैं। अनंतिम रूप से, बीमाकर्ताओं के पास एनवॉयरमेंटल सोसाइटल एण्ड गवर्नेंस अनुपालन बोर्ड भी होने चाहिये।”
क्लाइमेट ट्रेंड्स की निदेशक आरती खोसला –
“वर्ष 2020-21 में भारत में किये गये कुल बीमा दावों में सबसे ज्यादा संख्या ऐसे दावों की थी जो अम्फान चक्रवात के कारण हुए नुकसान से सम्बन्धित थे। इस चक्रवात की वजह से पश्चिम बंगाल समेत पूर्वी भारत में बड़े पैमाने पर नुकसान हुआ था। फिर भी पूरे एशिया में बीमा की पैठ के मामले में भारत की दर सबसे कम है। जाहिर है कि बीमा क्षेत्र जलवायु से सम्बन्धित अल्पकालिक और तात्कालिक जोखिमों से निपटने के लिये तैयार नहीं है। यहां तक कि हम समुद्र के जलस्तर में वृद्धि, हीट मैपिंग, सूखा आदि जैसे बहु-दशकीय परिवर्तनों से निपटने के बारे में चर्चा भी नहीं कर रहे हैं, जो अब दूर के जोखिम नहीं हैं, बल्कि 3-8 दशकों से हमारे सामने खड़े हैं। कृषि बीमा के मॉडल से भी साबित होता है कि भारत में बीमा क्षेत्र को कामयाब बनाने के लिये स्थितियां कितनी अस्थिर हैं। नवीनतम आईपीसीसी रिपोर्ट केवल जलवायु परिवर्तन से भौतिक जोखिमों की एक सीमा के लिए भारत की बढ़ती भेद्यता की पुष्टि करती है, व्यापक होती आपदाओं में जिनकी तीव्रता तथा आकार में और बढ़ोत्तरी होने का अनुमान है। पिछले साल महाराष्ट्र में बीमा क्षेत्र सहित लघु, बड़े एवं मध्यम उद्योगों की जलवायु जोखिमशीलता आकलन सर्वे में खुलासा हुआ है कि करीब आधे उद्योग यह मानते हैं कि कारोबार मॉडल और योजना का फिर से आकलन करने की जरूरत है, वहीं एक तिहाई से ज्यादा ने पूंजी को हुए नुकसान के लिये जलवायु परिवर्तन को दोषी माना। हर 10 में 6 उद्योग जलवायु से खतरे को खत्म करके एक कामयाब जोखिम-अंतरण तथा मूल्य निर्धारण प्रणाली विकसित करना चाहते हैं जो बाहरी पर्यावरण के अनुकूल हो।’’
सेंटर फॉर फाइनेंशियल अकाउंटेबिलिटी के अधिशासी निदेशक जो एथियाली –
‘‘जलवायु सम्बन्धी आपात स्थिति हमारी दहलीज पर खड़ी है। आईपीसीसी द्वारा हाल में जारी की गयी रिपोर्ट उन भौतिक खतरों के बारे में एक स्पष्ट संदेश है जो जलवायु संकट को देखते हुए हमारे सामने आएंगे। अब कोई भी इससे इनकार की मुद्रा में नहीं रह सकता। अनेक मोर्चों पर बड़ी कीमतें चुकानी होंगी। इनमें वित्तीय कीमत भी शामिल है, जिसके बारे में अभी पर्याप्त गहराई से नहीं देखा जा रहा है। पूरी दुनिया में इसके प्रमाण हैं कि जलवायु परिवर्तन जनित आपदाएं कैसे बीमा कम्पनियों को घुटनों पर ला रही हैं, क्योंकि उन्हें इन आपदाओं से हुए नुकसान के बीमा दावों के भुगतान के रूप में बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ी है। बीमा कंपनियों को यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि कंपनियां महत्वपूर्ण जलवायु संबंधी वित्तीय प्रकटीकरण प्रदान करें।’’
भारत की सबसे बड़ी पुनर्बीमा कंपनी, Munichre (म्यूनिखरे), इस बात से सहमत हैं कि तूफान, बाढ़ और सूखा भारतीय क्षेत्र के लिए प्रमुख मौसम जोखिम हैं। चूंकि वे अप्रत्याशित और चरम हैं, ये मौसम की घटनाएं कंपनी के नुकसान में अधिक अस्थिरता चला रही हैं, जो बीमा समाधानों की संरचना को और अधिक चुनौतीपूर्ण बना देता है।
सामान्य तौर पर, बीमाकर्ता लंबे समय से ‘विनाशकारी मॉडल’ पर भरोसा करते हैं, जो भविष्य के जोखिमों की कीमत के लिए ऐतिहासिक हानि डाटा का उपयोग करते हैं। लेकिन अभूतपूर्व जलवायु परिस्थितियों ने भविष्य के नुकसान की मॉडलिंग को पहले से कहीं अधिक कठिन बना दिया है। जलवायु से संबंधित नुकसान को अवशोषित करने की बीमाकर्ताओं की क्षमता का बड़ी घटनाओं से संभावित रूप से विह्वल होना बहुत वास्तविक है। उदाहरण के लिए, 2018 में, मर्सिड प्रॉपर्टी एंड कैजुअल्टी कंपनी कैलिफ़ोर्निया में जंगल की आग के कारण सभी दावों का भुगतान करने में असमर्थ थी और प्रत्यक्ष परिणाम के रूप में दिवालिया हो गई थी।
बढ़ते हुए भौतिक जोखिम बाजार आधारित जोखिम हस्तांतरण तंत्र और भारतीय बीमा कंपनियों के व्यापार मॉडल के पीछे अंतर्निहित धारणाओं दोनों के लिए चुनौतियां पेश करते हैं। वार्षिक आधार पर बीमा प्रीमियम का पुनर्मूल्यांकन करने की क्षमता वित्तीय घाटे को कम करने में उद्योग का मुख्य उपकरण है। लेकिन निरंतर प्रीमियम वृद्धि उद्योग के लिए एक सस्टेनेबल, दीर्घकालिक समाधान नहीं है, क्योंकि बढ़ते प्रीमियम से उपभोक्ताओं के लिए उपलब्धता और सामर्थ्य संकट पैदा होने की संभावना है। उन जगहों और उद्योगों में जहां संपत्ति का बीमा करना कठिन होता है, प्रीमियम और मुनाफा कम हो जाएगा और संभवतः गायब हो जाएगा। निरंतर प्रीमियम वृद्धि के बजाय, बीमाकर्ता भविष्य के जलवायु जोखिमों के लिए एडाप्टेशन और मिटिगेशन उपायों को विकसित करने के लिए ग्राहकों के साथ सहयोग करने पर विचार कर सकते हैं।
जलवायु के भौतिक प्रभावों के परिणामस्वरूप व्यापक आर्थिक मंदी बीमा ग्राहकों की बीमा कवरेज खरीदने और वहन करने की क्षमता को भी कम कर देगी। अनुसंधान भविष्यवाणी करते हैं कि जलवायु परिवर्तन 2100 तक भारत के सकल घरेलू उत्पाद को लगभग 2.6% तक कम कर सकता है, भले ही वैश्विक तापमान में वृद्धि 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रोक ली जाए। 4 डिग्री सेल्सियस के परिदृश्य में आर्थिक क्षति हर साल सकल घरेलू उत्पाद के 13.4% तक बढ़ सकती है। यह भारत के लिए विशेष रूप से समस्याग्रस्त है, जहां बीमा पैठ सकल घरेलू उत्पाद का केवल 1% है, जो एशियाई पैठ 1.85% और वैश्विक पैठ 2.8% से बहुत कम है। कम बीमा पैठ बीमाकर्ताओं की अपने ग्राहकों के बीच लागत फैलाने की क्षमता को सीमित करती है और बीमाकर्ताओं के लिए जोखिमों की आवृत्ति, गंभीरता और अंतःसंबंध के लिए हिसाब करना मुश्किल बनाती है।
भारत की कृषि और बुनियादी ढांचे पर जलवायु परिवर्तन का असर
प्रभावों, एडाप्टेशन और भेद्यता पर नई IPCC WG2 (वर्किंग ग्रुप 2) रिपोर्ट के अनुसार, भारत जलवायु-प्रेरित बाढ़, गर्मी के तनाव और सूखे के लिए दुनिया के सबसे कमज़ोर देशों में से एक है।
भारत समुद्र के स्तर में वृद्धि, नदियों और पिघलने वाले ग्लेशियरों से कई बाढ़ के खतरों के संपर्क में है। 2018 और 2019 के दौरान प्रमुख बाढ़ और भूस्खलन से भारत में 700 से अधिक लोगों की मौत हो गई और 11 बिलियन अमरीकी डालर का नुकसान हुआ। WG2 रिपोर्ट में पाया गया कि मुंबई शहर समुद्र के स्तर में वृद्धि के परिणामस्वरूप तटीय बाढ़ के लिए दूसरा सबसे अधिक भेद्य मेगासिटी है।जलवायु मिटिगेशन के बिना, शहर को अकेले तटीय बाढ़ (अध्याय 10.4.6.3.4) से 2050 तक (संचयी रूप से) 49-50 बिलियन अमरीकी डालर का आर्थिक नुकसान हो सकता है। रिपोर्ट में यह भी पाया गया कि भारत बाढ़ वाली नदियों के लिए दुनिया में दूसरा सबसे अधिक भेद्य है, जिससे 6 बिलियन अमरीकी डालर (अध्याय 10.4.5.3.6) की वार्षिक औसत हानि हो सकती है। उत्तर भारत में पिघलने वाले ग्लेशियर भी आउटबर्स्ट बाढ़ का कारण बन सकते हैं, जिससे पश्चिमी हिमालयी समुदायों की सुरक्षा को खतरा है। उदाहरण के तौर पर, 2013 में एक ग्लेशियर झील के आउटबर्स्ट से फ़्लैश फ्लड (अचानक आई बाढ़) विनाशकारी बाढ़ और भूस्खलन का कारण बना, जिससे उत्तराखंड राज्य में 5,000 से अधिक लोग मारे गए।
अत्यधिक गर्मी सबसे घातक और महंगी जलवायु खतरों में से एक – विश्व स्तर पर इसने 1998 और 2017 के बीच 166,000 लोगों की जान ली है, जिनमें से एक तिहाई के लिए सीधे जलवायु परिवर्तन को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। अनुमानों से पता चलता है कि बेरोकटोक जलवायु परिवर्तन से वेट-बल्ब तापमान होने की संभावना है, जो कि गर्मी के तनाव की एक मात्रा है, सदी के अंत तक भारत के अधिकांश हिस्सों में जीवित रहने योग्य सीमा तक पहुंचने या उससे अधिक होने की संभावना है। गंभीर रूप से, अनुमानित उच्च तापमान से गर्मी से संबंधित रुग्णता और मृत्यु दर में वृद्धि होगी। अगर तापमान 3 डिग्री सेल्सियस तक जारी रहा तो भारत के लिए GDP (जीडीपी) के नुकसान का प्रमुख कारण हीट स्ट्रेस भी पाया गया।
WG2 की रिपोर्ट में पाया गया कि जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप पूरे एशिया में सूखे और पानी के तनाव के बढ़ने की आशंका है, और इसका खाद्य सुरक्षा और नागरिक संघर्षों के लिए गंभीर परिणाम हो सकता हैं। कृषि क्षेत्र, जो भारत की 2 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की अर्थव्यवस्था का लगभग 16.5% है और देश के 1.3 बिलियन में से आधे से अधिक लोगों को रोजगार देता है, विशेष रूप से सूखे के प्रति भेद्य है। अर्थव्यवस्था के लिए इसके महत्व की वजह से सूखे की स्थिति में वृद्धि भारत के समग्र आर्थिक विकास को गंभीर रूप से प्रभावित करेगी (अध्याय, 10.5.4.3)। सरकारी थिंक टैंक नीति आयोग के अनुसार, भारत में छह सौ मिलियन लोग पहले से ही पानी की गंभीर कमी का सामना कर रहे हैं। WG2 रिपोर्ट में पाया गया कि उच्च उत्सर्जन दिल्ली और कोलकाता में शहरी आबादी के लिए सूखे के जोखिम को बढ़ा देंगे, जो पहले से ही पानी के तनाव का सामना कर रहे हैं।
भौतिक विज्ञान के आधार पर IPCC की छठी आकलन रिपोर्ट (WGI रिपोर्ट के निष्कर्षों पर बनी WG2 रिपोर्ट, जिसमें पाया गया कि ग्लोबल वार्मिंग के मौजूदा 1.1 डिग्री सेल्सियस पर, हम पहले से ही बढ़ते प्रभाव देख रहे हैं, जिसमें चरम मौसम की घटनाएं घटनाओं से दुनिया भर में हीटवेव, सूखा और बाढ़ शामिल हैं।
भारतीय बीमा कंपनियों के लिए भौतिक जलवायु जोखिमों के नकारात्मक प्रभाव:
जोखिम प्रकार | विवरण | प्रभाव |
बीमा पैठ | बढ़ा हुआ भौतिक जोखिम आर्थिक विकास को धीमा कर देता है, जिससे ग्राहकों की बीमा खरीदने की क्षमता कम हो जाती है | बीमा लेने में कमी और उच्च पॉलिसी रद्दीकरण |
दावे | बीमित संपत्ति (संपत्ति, स्वास्थ्य, कृषि) को उम्मीद से अधिक नुकसान, जिसके कारण उच्च मूल्य और अधिक बार-बार दावे होते हैं | अपेक्षा से अधिक बीमा दावा भुगतान, अतिरिक्त पूंजी आवश्यकताएं |
प्रीमियम | उच्च जलवायु जोखिम बीमा उत्पादों के मूल्य को बढ़ाता है और लोगों को वैकल्पिक उत्पाद खोजने या बीमा कवरेज बंद करने के लिए प्रेरित करता है | प्रीमियम राजस्व, लाभ और प्रतिस्पर्धात्मक लाभ में कमी |
भारतीय बीमा कंपनियों को जलवायु जोखिमों के प्रति सक्रिय रूप से प्रतिक्रिया करनी चाहिए
क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों, इंस्टीट्यूट ऑफ एक्चुअरीज ऑफ इंडिया और विवेकपूर्ण नियामकों की सिफारिशों के बावजूद, भारतीय बीमाकर्ता जलवायु जोखिमों के प्रबंधन में अपने वैश्विक साथियों से पिछड़ रहे हैं।
गौरतलब है कि आईपीसीसी की रिपोर्ट में भारतीय बीमाकर्ताओं के लिए बढ़ते जोखिम की चेतावनी साफ़ है – रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन से भारत में चरम मौसम की घटनाओं की संभावना और तीव्रता में वृद्धि का अनुमान है, जिससे इसके लोगों, कृषि और बुनियादी ढांचे को खतरा है।
· बढ़ते भौतिक जोखिम भारत में बीमा सुरक्षा की भविष्य की उपलब्धता और सामर्थ्य को प्रभावित करेंगे, संभावित रूप से बीमा उद्योग के मौजूदा व्यापार मॉडल के लिए खतरा पैदा करेंगे।
· ये जोखिम इस बारे में बुनियादी सवाल खड़े करते हैं कि भारतीय बीमाकर्ता अपने कारोबार को एक सस्टेनेबल और लाभदायक तरीके से कैसे प्रबंधित करते हैं।
वैश्विक बीमा उद्योग से जलवायु संबंधी खुलासे की 2020 की समीक्षा में, भारतीय बीमा कंपनियां अपने वैश्विक समकक्षों में सबसे खराब प्रदर्शन करने वालों में से थीं। ग्लोबल कंसल्टेंसी EY (ईवाई) ने टास्क फोर्स ऑन क्लाइमेट रिलेटेड फाइनेंशियल डिस्क्लोजर (TCFD) (टीसीएफडी) की 11 सिफारिशों की तुलना में वार्षिक रिपोर्ट का आकलन किया और भारतीय बीमा कंपनियों को उनके प्रकटीकरण की गुणवत्ता पर 100 के स्कोर में से 10 से नीचे स्कोर किया। TCFD का गठन 2017 में G20 वित्तीय स्थिरता बोर्ड द्वारा अनुशंसाओं का एक सुसंगत सेट बनाने के लिए किया गया था कि कैसे कंपनियां अपने व्यवसायों के लिए जलवायु-संबंधी प्रभावों का विश्लेषण और खुलासा कर सकती हैं। तब से, ये राय (सलाहें) जलवायु प्रकटीकरण और विवेकपूर्ण कॉर्पोरेट प्रबंधन का स्वर्ण-मानक बन गई हैं। उन्हें संतुष्ट करने के लिए, कंपनियों को “उनकी व्यावसायिक गतिविधियों के लिए सबसे अधिक प्रासंगिक जलवायु से संबंधित जोखिमों और अवसरों” का मूल्यांकन और खुलासा करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता हैं।
इसका मतलब यह है:
क) निम्न-कार्बन अर्थव्यवस्था में संक्रमण से संबंधित जोखिम
ख) जलवायु परिवर्तन के भौतिक प्रभावों से संबंधित जोखिम
जलवायु जोखिम के अपने प्रबंधन को स्पष्ट करने के लिए बीमाकर्ताओं की क्षमता न केवल उनके शेयरधारकों के लिए, बल्कि अर्थव्यवस्था की वित्तीय स्थिरता के लिए भी महत्वपूर्ण है। यही कारण है कि यूरोपीय नियामक जलवायु तनाव परीक्षणों के प्रति अपने दृष्टिकोण में सुधार कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, 2019 में, बैंक ऑफ इंग्लैंड ने जलवायु परिवर्तन से संबंधित जोखिमों के लिए यू.के. के बीमा क्षेत्र का अनिवार्य वित्तीय तनाव परीक्षण शुरू किया। हालांकि भारतीय रिजर्व बैंक ने अभी तक एक हस्तक्षेपवादी दृष्टिकोण नहीं चुना है, इसका संकेत है कि जलवायु पैटर्न में बदलाव का भारत के लिए आर्थिक गतिविधि के प्रमुख संकेतकों पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ सकता है। विनियामक हस्तक्षेप की अनुपस्थिति में, बीमाकर्ताओं को जलवायु जोखिमों को स्वयं संबोधित करने के लिए और अधिक करना चाहिए, या तेज़ी से अनिश्चित और विघटनकारी होते वातावरण में नुकसान का सामना करना पड़ेगा।